अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
महफ़िलें ख़्वाब की सूरत हुईं वीराँ क्या क्या
किया है आने का वादा तो उस ने
मेरे परवरदिगार आए न आए
है क़यामत तिरे शबाब का रंग
रंग बदलेगा फिर ज़माने का
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
किस को फ़ुर्सत थी ज़माने के सितम सहने की
गर न उस शोख़ की आँखों का इशारा होता
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है
चमन वालों से मुझ सहरा-नशीं की बूद-ओ-बाश अच्छी
बहार आ कर चली जाती है वीरानी नहीं जाती
कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब
अपनी क़िस्मत में जो लिक्खी थी वो ख़्वारी न गई
सू-ए-कलकत्ता जो हम ब-दिल-ए-दीवाना चले
गुनगुनाते हुए इक शोख़ का अफ़्साना चले
पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी कि बदली छा गई
अख़्तर शीरानी के शेर