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रोज़ी – अमृता प्रीतम की कविता

नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है

सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोज़ी रख दे।

जो ख़ाली हण्डिया भरता है
राँध-पकाकर, अन्न परसकर
वही हाण्डी उलटा रखता है

बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है।

रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है

जो कमाना है, वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है…

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By: Amrita Pritam

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