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स्त्रीधन – अनुराधा अनन्या की कविता

नानी-दादी
माएँ, मौसी, मामी, चाची
नए कपड़ों, गहनों को
सम्भालकर रखती हैं
गहरे सन्दूक में
बेटियों के ब्याह के लिए
बहुओं के श्रृंगार के लिए!

सन्दूक के आसपास
डोलती हैं बच्चियां
किसी ख़ज़ाने के खुलने का
इंतज़ार करती हुई

और पूछ लेती हैं
क्या ये मेरे लिए हैं?
ये चमकीला चांदी का गिलास
सितारों वाली चुनर
नानी की नथ, दादी का हार

हाँमी भरती हुई
माँ उठाती हैं
एक-एक तह को
तह से उधड़ती हुई स्मृतियाँ
नानी, दादी या उनकी भी नानी, दादियों के चेहरे दिखाती हैं

फिर से जमा दी जाती है तहें सन्दूक में
इस तरह स्त्रीधन के रहस्य भी
छिप जाते हैं तहों में

और सन्दूक के पास डोलती बच्चियां
अनजान हैं इन तहों की परतों में छिपी पीड़ाओं और आशंकाओं से

यही प्रक्रम पीढ़ियों से दोहराया जाता है
खोला जाता है भारी सन्दूक
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
इसी तरह उघड़ते हैं
तहों में जमे पीढ़ियों के चेहरे
दुःखों की कहानी, ज़ुल्मों की साज़िशें

फिर जमाई जाती हैं तहें क़रीने से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी

स्त्रीधन के रूप में
ढोये जाते हैं यही भारी सन्दूक
बच्चियों के द्वारा
हर पीढ़ी में…

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By: Anuradha Ananya

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