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आस्तीन के साँप – अनवर सुहैल की कविता

वह जैसे हैं वैसे दिखते हैं
इस लिहाज़ से मान लिया जाए कि सच्चे हैं
उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे साँप हैं
जो आस्तीनों में नहीं पलते
चोरी-छिपे नहीं बल्कि
डसते हैं बताकर
कभी सिर्फ़ डराने के लिए
फुँफकारते हैं फन काढ़े

हम सदियों से ऐसे साँपों के रहे बीच
जो पलते रहे आस्तीनों में
साथ रहे उठते-बैठते-सोते
हमने मान लिया था कि ये
क्या डसेंगे जो इतने क़रीबी हैं
पूर्वजों से सीने में दफ़न
ज़हर मारने का मन्त्र हम भूलते गये

बहुत पीड़ादायी है
सर्प-विष की जलन-तड़पन
ख़ुद पर हो या अपनों पर
सर्प-दंश का असर सोने नहीं देता
या कि सुला देता है पूरे समुदाय को
एक झाग-भरी, नीली-ज़हरीली नींद!

तुम बार-बार आगाह करते रहते हो
तुम्हारा शुक्रिया लेकिन होशियार रहो
ये साँप बेक़रार हैं तुम्हारा शिकार करने को…

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By: Anwar Suhail

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