Categories: कविता

पत्थर बहुत सारे थे

Published by
Aparna Dewal

पटरी औरत लगी मुझे
जिसकी छाती पर चल रही हो दुनिया
और
जिसके दोनों ओर
रखे गए हों पत्थर
ताकि वह बनी रहे वैसी जैसा उसे बनाया गया हो।
पत्थरों के लिए नहीं मिली कोई उपमा
पत्थर बहुत सारे थे।

पटरी जानती है यह बात
कि सब गुज़र जाता है
जीवन ठहरने के लिए बना ही नहीं
पटरी होती है उदास
उदासी के गुज़र जाने तक।

एक बार यह समझ लेने के बाद
कि सब गुज़र ही जाना है एक दिन
जीवन कितनी ही बार पटरी पर लौटे
लौटे या न भी लौटे
क्या फ़र्क़ पड़ता है।

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Aparna Dewal