ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता
अदब ता’लीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का
वही शागिर्द हैं जो ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है
इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी
इस एक मुश्त-ए-ख़ाक को ग़म दो-जहाँ के हैं
मज़ा है अहद-ए-जवानी में सर पटकने का
लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे
साक़िया जाते हैं महफ़िल तिरी आबाद रहे
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
बता दे तू ही ऐ ज़ालिम तड़पने की अदा क्या है
जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें
मगर यक़ीं तिरे वा’दों पे ला नहीं सकते