मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर
बस यही दो लफ़्ज़ इक दिन दास्ताँ हो जाएँगे
आख़िरी वक़्त तलक साथ अंधेरों ने दिया
रास आते नहीं दुनिया के उजाले मुझ को
हो के मजबूर ये बच्चों को सबक़ देना है
अब क़लम छोड़ के तलवार उठा ली जाए
तेरे फ़िराक़ ने की ज़िंदगी अता मुझ को
तेरा विसाल जो मिलता तो मर गया होता
ज़र्रे ज़र्रे में महक प्यार की डाली जाए
बू तअस्सुब की हर इक दिल से निकाली जाए
गर तरन्नुम पर ही ‘दानिश’ मुनहसिर है शाइरी
फिर तो दुनिया भर के शाइर नग़्मा-ख़्वाँ हो जाएँगे
अपने दुश्मन को भी ख़ुद बढ़ के लगा लो सीने
बात बिगड़ी हुई इस तरह बना ली जाए
रूदाद-ए-शब-ए-ग़म यूँ डरता हूँ सुनाने से
महफ़िल में कहीं उन की सूरत न उतर जाए