शेर

चकबस्त ब्रिज नारायण के चुनिंदा शेर

Published by
Brij Narayan Chakbast

ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
यही दौलत है मेरी और यही जाह-ओ-हशम मेरा


इस को ना-क़दरी-ए-आलम का सिला कहते हैं
मर चुके हम तो ज़माने ने बहुत याद किया


ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है
मिटाया गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने जाह-ओ-हशम मेरा


ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं
शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते


चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के
उसे हवा के फ़रिश्ते बुझा नहीं सकते


अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ख़ुदा को बाग़बाँ और क़ौम को हम ने शजर जाना


किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने
कि दुश्मन है बरहमन और अदू शैख़-ए-हरम मेरा


है मिरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़ कर
नंग है मेरे लिए चाक-ए-गरेबाँ होना


लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे


मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं
ऐसी दिल-जमई से होती है परेशानी मुझे


992

Page: 1 2 3

Published by
Brij Narayan Chakbast