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जागरण – दिनकर की कविता

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की!
साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की।
विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली!
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बाँह खोले;
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,
पुष्पशर चिन्तित खड़ा संसार के उर की विजय को।
मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली?’
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा;
विश्व-यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा।
चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली।
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को,
प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को।
भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली।
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है;
अप्सराएँ भूमि के हित पंख-पट निज खोलती है।
आज बन साकार छाने उमड़ते कवि-स्वप्न आली!
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली!

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जागरण

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By: Ramdhari Singh (Dinkar)

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