बिछड़ के तुझ से तिरी याद भी नहीं आई
मकाँ की सम्त पलट कर मकीं नहीं आया
ज़मीन पर न रहे आसमाँ को छोड़ दिया
तुम्हारे ब’अद ज़मान ओ मकाँ को छोड़ दिया
कोई भी रस्ता किसी सम्त को नहीं जाता
कोई सफ़र मिरी तकमील करने वाला नहीं
बस एक बार वो आया था सैर करने को
फिर उस के साथ ही ख़ुश्बू गई चमन भी गया
यूँ जगमगा उठा है तिरी याद से वजूद
जैसे लहू से कोई सितारा गुज़र गया
ख़ुद अपने होने का हर इक निशाँ मिटा डाला
‘शनास’ फिर कहीं मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू हुए हम
उस के लबों की गुफ़्तुगू करते रहे सुबू सुबू
यानी सुख़न हुए तमाम यानी कलाम हो चुका
वो जिस के हाथ से तक़रीब-ए-दिल-नुमाई थी
अभी वो लम्हा-ए-मौजूद में नहीं आया
किसी के दिल में उतरना है कार-ए-ला-हासिल
कि सारी धूप तो है आफ़्ताब से बाहर
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