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दिल में ख़याल-ए-इश्क़ था मेहमान की तरह

दिल में ख़याल-ए-इश्क़ था मेहमान की तरह
अरमाँ सजा था ‘मीर’ के दीवान की तरह

वुसअत ज़मीं की खो गई बस्ती की भीड़ में
गलियों में शोर बस गया मैदान की तरह

सर पर फ़लक को ओढ़े बिछाए ज़मीन वो
बैठा है शान से किसी सुल्तान की तरह

ग़ाफ़िल मिरे वजूद से साया मिरा रहा
था हम-सफ़र वो शहर में अंजान की तरह

रखता हूँ मैं अज़ीज़ रिवायत का सिलसिला
गिरते मिरे मकान के दालान की तरह

ये मुन्फ़इल सी ज़िंदगी मुझ को नहीं क़ुबूल
अहद-ए-जुनूँ के चाक-ए-गरेबान की तरह

तेवर से उस के आग तमन्ना में लग गई
जलने लगा है दिल मिरा शमशान की तरह

तेरे बग़ैर ‘साहनी’ तारों के दरमियाँ
महफ़िल उदास थी रह-ए-वीरान की तरह

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By: Jafar Sahni

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