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जवानी की उमंगों का यही अंजाम है शायद

जवानी की उमंगों का यही अंजाम है शायद
चले आओ कि वा’दे की सुहानी शाम है शायद

जो तिश्ना था कभी साक़ी वो तिश्ना-काम है शायद
उसी बाइ’स तो नज़्म-ए-मय-कदा बदनाम है शायद

हँसी के साथ भी आँसू निकल आते हैं आँखों से
ख़ुशी तो मेरी क़िस्मत में बराए-नाम है शायद

जिसे मय-ख़्वार पी के मय-कदे में रक़्स करते हैं
तिरी आँखों की मस्ती साक़ी-ए-गुलफ़ाम है शायद

उड़ाई शम्अ’ ने जब ख़ाक-ए-परवाना तो मैं समझा
मोहब्बत करने वालों का यही अंजाम है शायद

जो अब तक मय-कशों के पास मुद्दत से नहीं आई
अभी गर्दिश में ख़ुद ही गर्दिश-ए-अय्याम है शायद

मैं दानिस्ता अब उन के सामने ख़ामोश हूँ ‘जाफ़र’
ख़मोशी भी मिरी अब मोरिद-ए-इल्ज़ाम है शायद

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By: Jafar Abbas Safvi

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