उलझते रहने में कुछ भी नहीं थकन के सिवा
बहुत हक़ीर हैं हम तुम बड़ी है ये दुनिया
बात ये है कि आदमी शाइर
या तो होता है या नहीं होता
घबरा न सितम से न करम से न अदा से
हर मोड़ यहाँ राह दिखाने के लिए है
कोई रस्ता कहीं जाए तो जानें
बदलने के लिए रस्ते बहुत हैं
ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक
वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल
तुम्हारे वास्ते सब कुछ है मेरे बंदा-नवाज़
मगर ये शर्त कि पहले पसंद आओ मुझे
ये क्या कहूँ कि मुझ को कुछ गुनाह भी अज़ीज़ हैं
ये क्यूँ कहूँ कि ज़िंदगी सवाब के लिए नहीं
ये दिल-नवाज़ उदासी भरी भरी पलकें
अरे इन आँखों में क्या है सुनो दिखाओ मुझे
हवा चली तो फिर आँखों में आ गए सब रंग
मगर वो सात बरस लौट कर नहीं आए
पलट गईं जो निगाहें उन्हीं से शिकवा था
सो आज भी है मगर देर हो गई शायद