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मुनव्वर राना के चुनिंदा शेर

पचपन बरस की उम्र तो होने को आ गई
लेकिन वो चेहरा आँखों से ओझल न हो सका


आते हैं जैसे जैसे बिछड़ने के दिन क़रीब
लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं


हम सब की जो दुआ थी उसे सुन लिया गया
फूलों की तरह आप को भी चुन लिया गया


मैं राह-ए-इश्क़ के हर पेच-ओ-ख़म से वाक़िफ़ हूँ
ये रास्ता मिरे घर से निकल के जाता है


मैं दुनिया के मेआ’र पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मिरे मेआ’र पे पूरी नहीं उतरी


दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता


देखना है तुझे सहरा तो परेशाँ क्यूँ है
कुछ दिनों के लिए मुझ से मिरी आँखें ले जा


मिरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ


मुझे भी उस की जुदाई सताती रहती है
उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है


सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
दीवाना कई रोज़ से बीमार पड़ा है


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By: Munawwar Rana

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