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मुनव्वर राना के चुनिंदा शेर

जितने बिखरे हुए काग़ज़ हैं वो यकजा कर ले
रात चुपके से कहा आ के हवा ने हम से


वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली
सारी दुनिया मिरे कमरे के बराबर निकली


मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गई


तुम ने जब शहर को जंगल में बदल डाला है
फिर तो अब क़ैस को जंगल से निकल आने दो


तुझे मा’लूम है इन फेफड़ों में ज़ख़्म आए हैं
तिरी यादों की इक नन्ही सी चिंगारी बचाने में


वही हुआ कि मैं आँखों में उस की डूब गया
वो कह रहा था भँवर का पता नहीं चलता


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By: Munawwar Rana

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