माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
बस्ती में बच गए थे मकाँ कम बहुत ही कम
कोई दस्तक न कोई आहट थी
मुद्दतों वहम के शिकार थे हम
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
शहर की इस भीड़ में कुछ लोग बाज़ीगर भी थे
आसूदगी ने थपकियाँ दे कर सुला दिया
घर की ज़रूरतों ने जगाया तो डर लगा
सुर्ख़ मौसम की कहानी तो पुरानी हो गई
खुल गया मौसम तो सारे शहर में चर्चा हुआ
ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
और वहशी रात है गुमराहियाँ सर पर उठाए
चाहता है दिल किसी से राज़ की बातें करे
फूल आधी रात का आँगन में है महका हुआ
बर्फ़-मंज़र धूल के बादल हवा के क़हक़हे
जो कभी दहलीज़ के बाहर थे वो अंदर भी थे
रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं
सुब्ह को नीलाम करने के लिए कुछ घर भी थे
पी पी श्रीवास्तव रिंद के शेर