नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
किसी भी सम्त हो लेकिन सफ़र ज़रूरी है
अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा
दर्द एहसास का सीने में दबाने से उठा
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
हमारा ग़म तुम्हारा ग़म नहीं है
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
जो शीश-महल में बैठे हुए मज़दूर की बातें करते हैं
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में ‘उबैद’
अब छाँव आ गई है तो सब यार आए हैं
कोई दिमाग़ से कोई शरीर से हारा
मैं अपने हाथ की अंधी लकीर से हारा
शोख़ी किसी में है न शरारत है अब ‘उबैद’
बच्चे हमारे दौर के संजीदा हो गए
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
फिर ये हुआ मैं वाक़िफ़-ए-आदाब हो गया
आँगन आँगन ख़ून के छींटे चेहरा चेहरा बे-चेहरा
किस किस घर का ज़िक्र करूँ में किस किस के सदमात लिखूँ
हमें हिजरत समझ में इतनी आई
परिंदा आब-ओ-दाना चाहता है