दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने
लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
यहीं से है काबा को सज्दा हमारा
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
जादू वो जो सर पे चढ़ के बोले
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
जो ख़त में हाल लिखा था वो ख़त का हाल हुआ
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
बैठ जाओ ख़ुद हया उठ जाएगी
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
नज़र बचा के तू ऐ दिल किधर को जाता है
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
क्या ये दुनिया आक़िबत बख़्शवाएगी
कूचा-ए-जानाँ की मिलती थी न राह
बंद कीं आँखें तो रस्ता खुल गया