loader image

यात्री का वक्तव्य – धूमिल की कविता

बालिश्त भर
बीमार चेहरे पर
आदमक़द प्यास
तीखे समझौते को पीकर
लुढ़का देती प्याले-सा
उल्टा आकाश
मेरी हथेली पर।

मुझे जीने लगता है फिर से अलगाव…
गिरहकट आँखों की अर्थहीन चुप्पी में
डूबते सीमान्त दुर्बोध
परिचय का बासीपन
मुझको दोहरा जाता
बिल्कुल गुमनाम…
फिर भी मैं चलता हूँ
मेरी अतृप्तियाँ
लक्ष्यहीन दूरी का उजला भटकाव
देती है पाँवों में स्वस्तिक चिह्नों के घाव।

यात्री का वक्तव्य

961

Add Comment

By: Sudama Pandya 'Dhumil'

© 2022 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!