छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम
आईना जब भी रू-ब-रू आया
अपना चेहरा छुपा लिया हम ने
ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
क़तरे में मुहीत लाख क़ुल्ज़ुम
ताबिश देहलवी के शेर