बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया
ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
मैं अपनी वहशत के मक़बरे से नई तमन्ना के ख़्वाब देखूँ
ये तो सच है कि वो सितमगर है
दर पर आया है तो अमान में रख
मरहले और आने वाले हैं
तीर अपना अभी कमान में रख
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ
तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
ऐसा पहलू कोई बयान में रख
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं ‘मंज़र’
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
मैं रस्म-ए-ज़िंदगी जो निभाने में रह गया
सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
मगर टूटी हुई कश्ती में दरिया पार होना था
उमैर मंज़र के शेर