ऐ रात मुझे माँ की तरह गोद में ले ले
दिन भर की मशक़्क़त से बदन टूट रहा है
औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना
उस शख़्स को दामाद भी वैसा ही मिला है
शायद यूँही सिमट सकें घर की ज़रूरतें
‘तनवीर’ माँ के हाथ में अपनी कमाई दे
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
लेकिन मज़दूरों के चेहरे पीले हैं
अब तक मिरे आ’साब पे मेहनत है मुसल्लत
अब तक मिरे कानों में मशीनों की सदा है
जो कर रहा है दूसरों के ज़ेहन का इलाज
वो शख़्स ख़ुद बहुत बड़ा ज़ेहनी मरीज़ है
आज भी ‘सिपरा’ उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
मैं लोहे की नाफ़ से पैदा जो कस्तूरी करता हूँ
हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
वो इक़्तिदार में हैं मगर बे-विक़ार हैं
मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
उन्ही के वास्ते अब मेरा बेटा भी मचलता है
दिहात के वजूद को क़स्बा निगल गया
क़स्बे का जिस्म शहर की बुनियाद खा गई