मेरी साँसों से शूल छिला करते हैं,
दुख भी मेरे अनुकूल मिला करते हैं।
आँसू से मेरे हरी धरा की डाली,
पत्थर में भी मृदु फूल खिला करते हैं।
मैं कविता का शृङ्गार किया करता हूँ,
मैं भावों से अभिसार किया करता हूँ।
टकराती मेरी लहरें जग के तट से,
सागर-सा हाहाकार किया करता हूँ।
कवि हूँ, यों-ही कुछ गान किया करता हूँ,
मैं नवयुग का निर्माण किया करता हूँ।
जादू से मेरे विवश धरातल-वासी,
मैं सब की यों पहचान किया करता हूँ।
मैं सब से आँखें चार किया करता हूँ,
पर, किसी-किसी को प्यार किया करता हूँ।
मुझसे प्रसन्न क्यों रहें न मेरे सहचर?
मैं बिजली का संचार किया करता हूँ।
मैं चित्र तुम्हारा आँक लिया करता हूँ,
खिड़की से तुमको झाँक लिया करता हूँ।
पर, वही सामने जो तुम आ जाते हो,
मैं लज्जा से मुँह ढाँक लिया करता हूँ।
मैं अलियों को आह्वान किया करता हूँ,
कुछ अपने पर अभिमान किया करता हूँ।
मुझको न एक ही तरु की सुरभि सुहाती,
मैं फूल-फूल का पान किया करता हूँ।
मैं कब किसकी परवाह किया करता हूँ?
दुख से, पीड़ा से आह किया करता हूँ।
जो मुझे बुलाता, मुझे चाहता दिल से,
मैं भी बस, उसकी चाह किया करता हूँ।
मैं इन बूँदों को पाल लिया करता हूँ।
यों दिल की कसर निकाल लिया करता हूँ।
मस्ती में मेरी फर्क जरा भी आता,
मैं कभी-कभी कुछ ढाल लिया करता हूँ।
है स्वर्ग एक मेरी दुनिया का कोना,
मेरे अन्तर में अम्बर को भी खोना।
पारस-सा मेरा परस, सरस मधुऋतु-सा,
मिट्टी भी होती मुझको छू कर सोना।
मैं काच लुटाकर कीच लिया करता हूँ,
दृग-जल से अन्तर सींच लिया करता हूँ।
मत देखो मेरी ओर, चलो तुम बचकर,
मैं सबको बरबस खींच लिया करता हूँ।
मैं जहाँ पहुँचता, तुम्हें वहीं पाता हूँ,
प्रिय, प्रकट कहीं तो गुप्त कहीं पाता हूँ।
मैं मुकुर-जगत का मुखड़ा मुझमें देखो,
मैं अपने को ही देख नहीं पाता हूँ।
मैं इस जग में इस तरह जिया करता हूँ,
हर वक्त मौत से खेल किया करता हूँ।
गाने की आदत रही न मुझमें ऐसी,
मैं कभी-कभी गुनगुना लिया करता हूँ।