जिस तरह
हवन की वेदी में धधक कर
यौवन के दिन याद करती हैं
आम और नीम की उम्रदराज़ लकड़ियाँ
जिस तरह
कपड़ों की पुरानी पोटली में बँधी
रंग उड़ी जामुनी लहरिया याद करती है
अपना मुस्कराता पहला सावनी उत्सव
उसी तरह
हरिद्वार के घाट पर से बहाया हुआ वो
अस्थिकलश
मझदार में पहुँच कर याद करता है
देह के जंगल से पार
किसी का मन में उतरना…
सच है
अवशेषी स्मृतियों के लिए कोई मणिकर्णिका घाट नहीं होता…