गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के
तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे
न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
इस के ब’अद आए जो अज़ाब आए
जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई
सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं