शेर

फैज़ अहमद फैज़ के चुनिंदा शेर

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Faiz Ahmad Faiz

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं


ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं


इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के


तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे


न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है


उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं


आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
इस के ब’अद आए जो अज़ाब आए


जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई


सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे


ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं


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Faiz Ahmad Faiz