फूलों में वही तो फूल ठहरा
जो तेरे सलाम को खिला हो
लोग किनारे आन लगे
और किनारा डूब गया
लहजा तो बदल चुभती हुई बात से पहले
तीर ऐसा तो कुछ हो जिसे नख़चीर भी चाहे
नाव न डूबी दरिया में
नाव में दरिया डूब गया
उजले मैले पेश हुए
जैसे हम थे पेश हुए
कहाँ वो ज़ब्त के दावे कहाँ ये हम ‘गौहर’
कि टूटते थे न फिर टूट कर बिखरते थे