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चाय-चक्रम् – काका हाथरसी की कविता

एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
दूध, दही, फल, अन्न, जल छोड़ पीजिए चाय॥
छोड़ पीजिए चाय, अमृत बीसवीं सदी का।
जग-प्रसिद्ध जैसे गंगाजल गंग नदी का॥
कह ‘काका’, इन उपदेशों का अर्थ जानिए।
बिना चाय के मानव-जीवन व्यर्थ मानिए॥

कविता लिखने के लिए ‘मूड’ नहीं बन पाय।
एक साँस में पीजिए चार-पाँच कप चाय॥
चार-पाँच कप चाय, अगर रह जाए अधूरी।
इतने ही लो और, हो गई कविता पूरी॥
कह ‘काका’ कवि, खण्डकाव्य को पन्द्रह प्याला,
पचपन कप में महाकाव्य हमने लिख डाला॥

प्लेटफ़ॉर्म पर यात्री, पानी को चिल्लाय।
पानीवाला है नहीं, चाय पियो जी चाय॥
चाय पियो जी चाय, हिलाकर बोला दाढ़ी-
पैसे लेउ निकाल, छूट जाएगी गाड़ी॥
‘काका’ पीकर चाय, विरोधी दल का नेता,
धुआँधार व्याख्यान सभा-संसद में देता॥

लक्ष्मण के शक्ति लगी, विकल हुए भगवान।
संजीवनी लेने गए, पवन-पुत्र हनुमान॥
पवन-पुत्र हनुमान, आ गए लेकर बूटी।
सेवन करके लखनलाल की निद्रा टूटी॥
कह ‘काका’ कवि, जब खोली अक्क्ल की खत्ती।
समझ गए हम, इसी चाय की थीं कुछ पत्ती॥

गायक, वादक, लेक्चरर, नट, नर्तक औ’ भाट।
सभी चाय के भक्त हैं, धोबी, तेली, जाट॥
धोबी, तेली, जाट, ब्राह्मण, बनिया, ताऊ।
माऊ खांय अफ़ीम, चाय पीते चाऊ॥
कह ‘काका’, पीछे पीते हैं बाबू-लाला।
पहिले ख़ुद पी लेता, चाय बनानेवाला॥

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By: Kaka Hathrasi

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