उसी ने आग लगाई है सारी बस्ती में
वही ये पूछ रहा है कि माजरा क्या है
आपसी रिश्तों की ख़ुशबू को कोई नाम न दो
इस तक़द्दुस को न काग़ज़ पर उतारा जाए
पराए दर्द में होता नहीं शरीक कोई
ग़मों के बोझ को ख़ुद आप ढोना पड़ता है
मात-पिता को दे बन-वास
ख़ुद को आज्ञाकारी लिख
महेंद्र प्रताप चाँद के शेर