हम हैं का’बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को
मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से
फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए ‘मजरूह’
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने
‘मजरूह’ लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह
वो आ रहे हैं सँभल सँभल कर नज़ारा बे-ख़ुद फ़ज़ा जवाँ है
झुकी झुकी हैं नशीली आँखें रुका रुका दौर-ए-आसमाँ है
सैर-ए-साहिल कर चुके ऐ मौज-ए-साहिल सर न मार
तुझ से क्या बहलेंगे तूफ़ानों के बहलाए हुए
कुछ बता तू ही नशेमन का पता
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया
जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके