सुन रहा हूँ
पहर-भर से
अनुरणन—
मालवाही खच्चरों की घण्टियों के
निरन्तर यह
टिलिङ्-टिङ् टिङ्
टिङ्-टिङा-टङ्-टाङ्!
सुन रहा हूँ अनुरणन!
और सब सोए हुए हैं
उमा, सोमू, बसन्ती, शेखर, कमल…
सभी तो सोए पड़े हैं!
अकेले में जग गया हूँ
सुन रहा हूँ
मालवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
दूरगामी खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
श्रुति-मधुर है यह क्वणन
मुख्य पथ से दूर
वे पगडण्डियाँ हैं
भारवाही खच्चरों के
खुरों से रौंदी हुई हैं
पहाड़ी ग्रामाँचलों तक
ट्रक तो जाते नहीं हैं!
कौन उन तक माल पहुँचाए
तेल, चीनी, नमक, आटा—
गुड़ ‘य’ माचिस—मोमबत्ती
दवा-दारू या कि चावल-दाल
ईधन, लोह-लक्कड़
साहबों की कुर्सियाँ तक
खच्चरों की पीठ पर ही लदी होतीं!
निकर या बुशशर्ट..
रेडीमेड सारे
शिशु-जनोचित
सभी कुछ तो
खच्चरों की पीठ पर ही लदा रहता
पहुँचता है दूर-दूर…
पहाड़ी ग्रामाँचलों तक…
क्या पिठौरागढ़-भुवाली…
रानीखेत—अल्मोड़ा… कहीं भी
पहुँचने की
निजी ही पगडण्डियाँ हैं
खच्चरों के खुरों से रौंदी हुई
वे युगों तक
इतर साधारण जनों की
पथ-प्रदर्शक…
सुन रहा हूँ
खच्चरों की
घण्टियों की अनुरणन…
नित्य ही सुनता रहूँगा…
रात्रि के अन्तिम प्रहर में….
भारवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन—
तालमय, क्रमबद्ध…