हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा
जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले
मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे
वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ’त नहीं मिलती
हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में
वही हमेशा का आलम है क्या किया जाए
जहाँ से देखिए कुछ कम है क्या किया जाए