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निदा फ़ाज़ली के चुनिंदा शेर

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है


मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं


ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें
तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए


हमारा ‘मीर’-जी से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या


दूर के चाँद को ढूँडो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला


ख़तरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन
सैलाब किनारों पे मचलने तो लगे हैं


बृन्दाबन के कृष्ण कन्हय्या अल्लाह हू
बंसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू


ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता


बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ


ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या


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By: Nida Fazli

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