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निदा फ़ाज़ली के चुनिंदा शेर

दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही


सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई


किताबें यूँ तो बहुत सी हैं मेरे बारे में
कभी अकेले में ख़ुद को भी पढ़ लिया जाए


हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं


तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता


मिरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है
मुझे सँभाल के रखना बिखर न जाऊँ में


गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं


चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता


घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में
कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह


निदा फ़ाज़ली के शेर


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By: Nida Fazli

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