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पंडित जवाहर नाथ साक़ी के चुनिंदा शेर

फ़लक पे चाँद सितारे निकलने हैं हर शब
सितम यही है निकलता नहीं हमारा चाँद


क़ालिब को अपने छोड़ के मक़्लूब हो गए
क्या और कोई क़ल्ब है इस इंक़लाब में


नहीं खुलता सबब तबस्सुम का
आज क्या कोई बोसा देंगे आप


जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
तेरे आशिक़ की यही औक़ात है


जज़्बा-ए-इश्क़ चाहिए सूफ़ी
जो है अफ़्सुर्दा अहल-ए-हाल नहीं


हम को भरम ने बहर-ए-तवहहुम बना दिया
दरिया समझ के कूद पड़े हम सराब में


वो माह जल्वा दिखा कर हमें हुआ रू-पोश
ये आरज़ू है कि निकले कहीं दोबारा चाँद


ये रिसाला इश्क़ का है अदक़ तिरे ग़ौर करने का है सबक़
कभी देख इस को वरक़ वरक़ मिरा सीना ग़म की किताब है


दिल भी अब पहलू-तही करने लगा
हो गया तुम सा तुम्हारी याद में


सिक्का अपना नहीं जमता है तुम्हारे दिल पर
नक़्श अग़्यार के किस तौर से जम जाते हैं


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By: Pandit Jawahar Nath Saqi

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