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पंडित जवाहर नाथ साक़ी के चुनिंदा शेर

महव-ए-लिक़ा जो हैं मलकूती-ख़िसाल हैं
बेदार हो के भी नज़र आते हैं ख़्वाब में


नफ़्स-ए-मतलब ही मिरा फ़ौत हुआ जाता है
जान-ए-जानाँ ये मुनासिब नहीं घबरा देना


निगह-ए-नाज़ से इस चुस्त क़बा ने देखा
शौक़ बेताब गुल-ए-चाक-ए-गरेबाँ समझा


जम गए राह में हम नक़्श-ए-क़दम की सूरत
नक़्श-ए-पा राह दिखाते हैं कि वो आते हैं


बुराई भलाई की सूरत हुई
मोहब्बत में सब कुछ रवा हो गया


ये रूपोशी नहीं है सूरत-ए-मर्दुम-शनासी है
हर इक ना-अहल तेरा तालिब-ए-दीदार बन जाता


छू ले सबा जो आ के मिरे गुल-बदन के पाँव
क़ाएम न हों चमन में नसीम-ए-चमन के पाँव


वुसअ’त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ज़ाहिद-ए-सादा हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझा


उश्शाक़ जो तसव्वुर-ए-बर्ज़ख़ के हो गए
आती है दम-ब-दम ये उन्हीं को सदा-ए-क़ल्ब


नैरंग-ए-इश्क़ आज तो हो जाए कुछ मदद
पुर-फ़न को हम करें मुतहय्यर किसी तरह


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By: Pandit Jawahar Nath Saqi

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