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उम्मीद फ़ाज़ली के चुनिंदा शेर

मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हम तो ख़ुशबू की तरह निकले जिधर से निकले


सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
कहीं यही तिरा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू तो नहीं


तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
सफ़र में दश्त भी आता है घर भी आता है


जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
बंद बना कर सो मत जाना दरिया आख़िर दरिया है


जब से ‘उम्मीद’ गया है कोई!!
लम्हे सदियों की अलामत ठहरे


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By: Ummeed Fazli

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