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संगम – अफ़सर मेरठी की नज़्म

प्रयाग पे बिछड़ी हुई बहनें जो मिली हैं
पानी की ज़मीं पर भी तो कलियाँ सी खिली हैं
कुछ गंगा का रुकना
कुछ जमुना का झुकना
फिर दोनों का मिलना
वो फूल से खिलना
किस शौक़ से इठलाती हुई साथ चली हैं
ये इश्क़-ओ-मोहब्बत के नज़्ज़ारे अज़ली हैं
कहते हैं कि जन्नत से भी आई है बहन एक
गो तीनों का ही अस्ल में घर एक वतन है
घर जब से छुटा था
दिल सर्द हुआ था
वो कोह से गिरना
वो दश्त में फिरना
रातों को वो सुनसान बयाबान में चलना
सहमे हुए तारों का वो सीने में मचलना
था वो सफ़र दश्त में मैदान में बन में
ख़ामोश पहाड़ों में गुलिस्ताँ में चमन में
जंगल से निकलना
रुकते हुए चलना
कुछ बढ़ के पलटना
डर डर के सिमटना
मर मर के अकेले ये गुज़ारा है ज़माना
जैसे कोई दुनिया में न हो अपना यगाना
ख़ाली कभी जाती नहीं बे-लफ़्ज़ सदाएँ
आख़िर को असर कर गईं ख़ामोश दुआएँ
जागा है मुक़द्दर
प्रयाग पे आ कर
अब ग़म न सहेंगे
तन्हा न रहेंगे
प्रयाग पे बहनों को मिलाया है ख़ुदा ने
मुद्दत में ये दिन आज दिखाया है ख़ुदा ने
क्या जोश-ए-मोहब्बत से बग़ल-गीर हुई हैं
वारफ़्तगी-ए-शौक़ की तस्वीर हुई हैं
अल्लाह रे मोहब्बत
सरमाया-ए-राहत
ये किस को ख़बर थी
दिल मिलते हैं यूँ भी
होंगी न जुदा हश्र तक अब ऐसे मिली हैं
ख़ुश बहनें हैं या पानी पे कलियाँ सी खिली हैं

संगम

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By: Afsar Merathi

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