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वहीद अख़्तर के चुनिंदा शेर

जो सुनना चाहो तो बोल उट्ठेंगे अँधेरे भी
न सुनना चाहो तो दिल की सदा सुनाई न दे


माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
देने वालों की अमीरी का भरम खुलता है


हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
बहुत ज़माना हुआ था हमें ज़मीं से चले


उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
इस तरह मिल कि मुलाक़ात मुकम्मल हो जाए


नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए


ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
भटकी है तो फिर आँख भटकती ही रही है


हर एक लम्हा किया क़र्ज़ ज़िंदगी का अदा
कुछ अपना हक़ भी था हम पर वही अदा न हुआ


बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
जैसे उन्हें मेरा ही पता याद नहीं है


मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
तो आसमान की गहराई में उतर जाऊँ


अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
सुकूत ऐसा नहीं है जो कुछ सुनाई न दे


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By: Waheed Akhtar

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