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ज़हीर देहलवी के चुनिंदा शेर

चाहत का जब मज़ा है कि वो भी हों बे-क़रार
दोनों तरफ़ हो आग बराबर लगी हुई


शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की
तौबा के साथ तोड़िए बोतल शराब की


समझेंगे न अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक
कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे


ख़ैर से रहता है रौशन नाम-ए-नेक
हश्र तक जलता है नेकी का चराग़


इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा
आप जिस मुँह को छुपाते हैं दिखाना होगा


कभी बोलना वो ख़फ़ा ख़फ़ा कभी बैठना वो जुदा जुदा
वो ज़माना नाज़ ओ नियाज़ का तुम्हें याद हो कि न याद हो


कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं


दर्द और दर्द भी जुदाई का
ऐसे बीमार की दुआ कब तक


चौंक पड़ता हूँ ख़ुशी से जो वो आ जाते हैं
ख़्वाब में ख़्वाब की ताबीर बिगड़ जाती है


किस का है जिगर जिस पे ये बेदाद करोगे
लो दिल तुम्हें हम देते हैं क्या याद करोगे


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By: Zaheer Dehlvi

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