यहाँ देखूँ वहाँ देखूँ इसे देखूँ उसे देखूँ
तुम्हारी ख़ुद-नुमाई ने मुझे डाला है हैरत में
ब’अद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही
मिरी तक़दीर के नुक़सान कहाँ जाते हैं
आख़िर मिले हैं हाथ किसी काम के लिए
फाड़े अगर न जेब तो फिर क्या करे कोई
मुँह छुपाना पड़े न दुश्मन से
ऐ शब-ए-ग़म सहर न हो जाए
ऐ शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है
हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की
है लुत्फ़ तग़ाफ़ुल में या जी के जलाने में
वादा तो किया होता गो वो न वफ़ा होता
बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
मिरे घर शाम होनी है सहर से
वो जितने दूर खिंचते हैं तअल्लुक़ और बढ़ता है
नज़र से वो जो पिन्हाँ हैं तो दिल में हैं अयाँ क्या-क्या
है दिल में अगर उस से मोहब्बत का इरादा
ले लीजिए दुश्मन के लिए हम से वफ़ा क़र्ज़
क़हर है ज़हर है अग़्यार को लाना शब-ए-वस्ल
ऐसे आने से तो बेहतर है न आना शब-ए-वस्ल