ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी
हम जिसे समझे थे सहरा वो समुंदर निकला
दश्त की उड़ती हुई रेत पे लिख देते हैं लोग
ये ज़मीं मेरी ये दीवार ये दर मेरा है
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
ख़ुद-परस्ती को नया हर रोज़ पत्थर चाहिए
मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
महफ़ूज़ शर से कुछ है तो घर है चले-चलो
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
रुकने में जान ओ दिल का ज़रर है चले-चलो
बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
तुम घर में नहीं हो तो मकाँ है भी नहीं भी
बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
हर रास्ता परछाइयों ने रोक लिया है
लेते हैं तिरा नाम ही यूँ जागते सोते
जैसे कि हमें अपना ख़ुदा याद नहीं है
अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हुक्म हो तेरा तो बरसात मुकम्मल हो जाए