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अल्ताफ़ हुसैन हाली के चुनिंदा शेर

मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत
कोई वादा पूरा हुआ चाहता है


ताज़ीर-ए-जुर्म-ए-इश्क़ है बे-सर्फ़ा मोहतसिब
बढ़ता है और ज़ौक़-ए-गुनह याँ सज़ा के ब’अद


सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आख़िर को जी चुराने लगे


रोना है ये कि आप भी हँसते थे वर्ना याँ
तअ’न-ए-रक़ीब दिल पे कुछ ऐसा गिराँ न था


यारान-ए-तेज़-गाम ने महमिल को जा लिया
हम महव-ए-नाला-ए-जरस-ए-कारवां रहे


गुल-ओ-गुलचीं का गिला बुलबुल-ए-ख़ुश-लहजा न कर
तू गिरफ़्तार हुई अपनी सदा के बाइ’स


हर सम्त गर्द-ए-नाक़ा-ए-लैला बुलंद है
पहुँचे जो हौसला हो किसी शहसवार का


कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
चाक-ए-दिल में है मिरे जो कि गरेबाँ में नहीं

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By: Altaf Hussain Hali

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