क़ैस हो कोहकन हो या ‘हाली’
आशिक़ी कुछ किसी की ज़ात नहीं
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
सब कुछ कहा मगर न खुले राज़-दाँ से हम
हम रोज़-ए-विदाअ’ उन से हँस हँस के हुए रुख़्सत
रोना था बहुत हम को रोते भी तो क्या होता
नज़र आती नहीं अब दिल में तमन्ना कोई
बाद मुद्दत के तमन्ना मिरी बर आई है
इक दर्द हो बस आठ पहर दिल में कि जिस को
तख़फ़ीफ़ दवा से हो न तस्कीन दुआ से
बे-क़रारी थी सब उम्मीद-ए-मुलाक़ात के साथ
अब वो अगली सी दराज़ी शब-ए-हिज्राँ में नहीं
हम ने हर अदना को आ’ला कर दिया
ख़ाकसारी अपनी काम आई बहुत
क़लक़ और दिल में सिवा हो गया
दिलासा तुम्हारा बला हो गया
दिखाना पड़ेगा मुझे ज़ख़्म-ए-दिल
अगर तीर उस का ख़ता हो गया
धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किस से आश्नाई की