आ रही है चाह-ए-यूसुफ़ से सदा
दोस्त याँ थोड़े हैं और भाई बहुत
राज़ी हैं हम कि दोस्त से हो दुश्मनी मगर
दुश्मन को हम से दोस्त बनाया न जाएगा
‘हाली’ सुख़न में ‘शेफ़्ता’ से मुस्तफ़ीद है
‘ग़ालिब’ का मो’तक़िद है मुक़ल्लिद है ‘मीर’ का
क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
हम को ताक़त नहीं जुदाई की
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
न वो दीवार की सूरत है न दर की सूरत
तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
उमीद भी न रखूँ ना-उमीद भी न रहूँ
तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़
उस ने अच्छा ही किया हाल न पूछा दिल का
भड़क उठता तो ये शो’ला न दबाया जाता
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
तुम में आदत है ख़ुद-नुमाई की
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
देखिए क्या ढूँढते हैं और क्या पाते हैं हम