तुझ से पर्दा नहीं मिरे ग़म का
तू मिरी ज़िंदगी का महरम है
अब न वो जोश-ए-वफ़ा है न वो अंदाज़-ए-तलब
अब भी लेकिन तिरे कूचे से गुज़र होता है
बिठा के सामने तुम को बहार में पी है
तुम्हारे रिंद ने तौबा भी रू-ब-रू कर ली
कोई तो ख़ैर का पहलू भी निकले
अकेला किस तरह ये शर रहेगा
ख़ाक ने कितने बद-अतवार किए हैं पैदा
ये न होते तो उसी ख़ाक से क्या क्या होता
ख़ाली भी तो कर ख़ाना-ए-दिल दुनिया से
इस घर में मिरी जान ख़ुदा आएगा
मेरी दुनिया में अभी रक़्स-ए-शरर होता है
जो भी होता है ब-अंदाज़-ए-दिगर होता है
इलाज उस का गुज़र जाना है जाँ से
गुज़र जाने का जाँ से डर रहेगा
ग़लत है जज़्बा-ए-दिल पर नहीं कोई इल्ज़ाम
ख़ुशी मिली न हमें जब तो ग़म की ख़ू कर ली
निकलो भी कभी सूद-ओ-ज़ियाँ से वर्ना
कूचे में तिरे कौन भला आएगा