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रात – अनुराधा अनन्या की कविता

ओ प्यारी रात
तुम क्यों नहीं ठहरती उस तरह
जैसे रूह में ठहरे रहते हैं गरम स्पर्श
जैसे ज़ेहन में ठहरी रहती है कोई याद
तुम थोड़ा और ठहरो
और देखो
तुम्हारे चाँद झीलों में, नदियों में कैसे तैरते हैं
तुम देखो, बेचैन चिड़ियों की आवाज़ें भी बेख़ौफ़ सो रही हैं अपने घोसलों में
तुम्हारे रंग से ढके हुए जंगल, पर्वत बेहद सुकून में हैं
तुम्हारा होना कितना ज़रूरी है दिलजलों के लिए।

बन्द मकानों की खिड़की से झाँकती आँखों को देखो
कैसे तुम्हारे रंग में रंगा अम्बर उतर रहा है उनके भीतर

ओह, कितना प्यारा है ये एकान्त
जिसमें शामिल हैं सारी ज़िन्दा चीज़ें

तुम ठहरो और भरी रहो ख़ाली मन में
देर तक तैरती रहे आँखों में
तुम्हारे रंग की आभा
आँखें बंद करने पर भी

तुम ठहरो
जैसे ठहरती है गर्भ में आस
एक लम्बे समय और दर्द को काटते हुए
तब जाकर ख़ाली हाथों में आती है
मीठी किलकारी
और फिर तुम्हारे बाद के सवेरे भी कुछ ऐसे ही हों
ओ रात ठहरो!

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By: Anuradha Ananya

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