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जा रहा हूँ जीवन की खोज में

जा रहा हूँ जीवन की खोज में
सम्भवत: मृत्यु मिले
सम्भवत: मिले एक सभ्य
सुसंस्कृत जीवन-व्यवहार
साँझ मिले बाँझ
आँच न मिले
जीवन की राख मिले
दसों-दिशाओं में।

क्या ऐसा नहीं हुआ कई बार
कई तथागतों के साथ
कई शताब्दियों में
निरन्तर!

जब भी वह निकला उल्लास
लास भौतिक जीवन पर इठलाता
मिली उसे निरी उदासीनता
मिला उसे कठिन कंकाल
मिला उसे भव्य अन्तराल।
क्या वह नहीं लौटा
विकल-विकल लिए
हाथों में अपना ही तरल रक्त
क्या उसकी आँखों से नहीं
टूटा, निपट उदास टिमटिमाता
सितारा एक?

पृथ्वी थोड़ी और
समृद्ध क्या नहीं हुई
उसके बाद!

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By: Doodhnath Singh

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