(१)
सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं
क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।
(२)
तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में, गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको क़ैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
(३)
गीत गाकर चेतना को वर दिया मैंने
आँसुओं से दर्द को आदर दिया मैंने
प्रीत मेरी आत्मा की भूख थी, सहकर
ज़िंदगी का चित्र पूरा कर दिया मैंने
(४)
जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।
मुक्तक