अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
ज़िंदगी मजबूरियों का नाम हो कर रह गई
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
अब मेरा इंतिज़ार करो मैं नशे में हूँ
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
ठुकराओ चाहे प्यार करो मैं नशे में हूँ
‘दाग़’ के शेर जवानी में भले लगते हैं
‘मीर’ की कोई ग़ज़ल गाओ कि कुछ चैन पड़े
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
और शहर-ए-लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
सुब्ह होने को है अब ‘तर्ज़’ को सो जाने दे
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
बंदगी अपनी जगह और मय-कशी अपनी जगह
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
हाथ आएगी फ़क़त दो गज़ ज़मीं मरने के बाद
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
कितने हैं जो मय-कदा बर-दोश हैं यारों के बीच
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
न तो ग़म रहा न ख़ुशी रही न जुनूँ रहा न परी रही