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हफ़ीज़ बनारसी के चुनिंदा शेर

उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
मेरा न हो सका वो किसी का तो हो गया


ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को
हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ़्तर है


समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है


मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
मिरा क़िस्सा निहायत मुख़्तसर है


हर हक़ीक़त है एक हुस्न ‘हफ़ीज़’
और हर हुस्न इक हक़ीक़त है


कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
दुनिया है तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर नहीं है


किसी का घर जले अपना ही घर लगे है मुझे
वो हाल है कि उजालों से डर लगे है मुझे


इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
चोट लगती है कहीं दर्द कहीं होता है


हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
तमाम उम्र हम अपने ही घर में क़ैद रहे


मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने ‘हफ़ीज़’
ज़िंदगी मेरी इक उजड़ी हुई महफ़िल ही सही


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By: Hafeez Banarasi

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